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अ॒ग्निरी॑शे वस॒व्य॑स्या॒ग्निर्म॒हः सौभ॑गस्य। तान्य॒स्मभ्यं॑ रासते ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir īśe vasavyasyāgnir mahaḥ saubhagasya | tāny asmabhyaṁ rāsate ||

पद पाठ

अ॒ग्निः। ई॒शे॒। व॒स॒व्य॑स्य। अ॒ग्निः। म॒हः। सौभ॑गस्य। तानि॑। अस्मभ्य॑म्। रा॒स॒ते॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:55» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (अग्निः) अग्नि के सदृश पुरुषार्थी (वसव्यस्य) धनों में श्रेष्ठ का और जैसे (अग्निः) अग्नि (महः) बड़े (सौभगस्य) उत्तम ऐश्वर्य्य के होने की (ईशे) इच्छा करता है (तानि) उनको (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (रासते) देता है, वैसे आप करो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे विद्या से उपजित अर्थात् वश में किया गया अग्नि, कार्य्यों को सिद्ध करके बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त कराता है, वैसे ही सेवा किये गये आप लोग विद्या और उपदेश आदि कार्य्यों को सिद्ध करके सब को ऐश्वर्य्ययुक्त करो ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथाऽग्निर्वसव्यस्य यथाऽग्निर्महः सौभगस्येशे तान्यस्मभ्यं रासते तथा त्वं कुरु ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्निरिव पुरुषार्थी (ईशे) ईष्टे (वसव्यस्य) वसुषु धनेषु साधोः (अग्निः) पावकः (महः) महतः (सौभगस्य) सुष्ठ्वैश्वर्य्यभावस्य (तानि) (अस्मभ्यम्) (रासते) ददाति ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा विद्ययोपजितोऽग्निः कार्य्याणि संसाध्य महदैश्वर्य्यं प्रापयति तथैव सेविता यूयं विद्योपदेशादिकार्य्याणि संसाध्य सर्वानैश्वर्य्ययुक्तान् कुरुत ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्येने वश केलेला अग्नी कार्य सिद्ध करतो व ऐश्वर्य प्राप्त करून देतो तसेच तुम्ही विद्या व उपदेश इत्यादी कार्यांना सिद्ध करून सर्वांना ऐश्वर्ययुक्त करा. ॥ ८ ॥